सॉंच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै सॉंच है, ताके हिरदै आप।।
तुलसी बैर सनेह दोउ रहित बिलोचन चारि।
सुरा सवेरा आदरहिं निंदहिं सुरसरि बारि।।
गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच ।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच ।।
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि अपशब्द एक ऐसा बीज है जो लड़ाई झगड़े, दुःख एवम् हत्या के क्रूर विचार के अंकुर को व्यक्ति के हृदय में रोपित करता है। अतः जो व्यक्ति इनसे हार मान कर अपना मार्ग बदल लेता है वो संत हो जाता है परंतु जो इनके साथ जीता है वह नीच होता है ।
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
आवत गारी एक है, उलटत होई अनेक ।
कह कबीर नहीं उलटिए, वही एक की एक ॥
अर्थ: संत कबीरदास जी कहते हैं कि जब गाली आती है तब वह एक ही होती है । उसके उलट कर उत्तर देने से वह कई रूप ले लेती है, अर्थात गलियों का सिलसिला शुरू हो जाता है । अतः गलियों का उलटकर उत्तर नहीं देना चाहिए ऐसा करने से वह एक ही रहेगी और स्वतः ही नष्ट हो जाएगी ।
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए,
वैद बेचारा क्या करे, कितना मरहम लगाए ।
"नमन खमन और दीनता, सब को आदर भाव ।
कहैं कबीर सोई बडे, जा में बडो सुभाव ॥"
संत कबीर दास जी कहते हैं कि नम्र भाव, क्षमा करने की क्षमता, दया भाव एवं सभी का आदर करने का गुण ये सभी बड़े स्वभाव वालों के ही आभूषण होते हैं, ऐसे बड़े स्वभाव वाले व्यक्ति ही सही अर्थों में बड़े होते हैं ।
ऐसी गति संसार की, ज्यों गाडर की ठाट ।
एक पडा जो गाड में, सभी गाड में जात ॥
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि इस विश्व के प्राणियों की चाल भी किसी भेंड़ के झुण्ड के समान ही है, जिस प्रकार एक भेंड़ के पीछे पीछे पुरे झुण्ड की भेंड़ें गङ्ढे में गिरती चली जाती हैं उसी प्रकार इस संसार में मनुष्य भी एक दूसरे को देख कर बिना सोचे समझे गलत राह को चुन लेता हैं ।
आव गया आदर गया, गया नैन सों नेह ।
कहैं कबीर तीनों गये, जब हि कहा कछु देय ॥”
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं की वाणी में स्वागत की मधुरता, सम्मान की भावना और आँखों से छलकता प्रेम ये तीनों किसी भी प्रेमी जन की आँखों से लुप्त हो जाते हैं जब आप उनके सामने अपनी आवश्यकता के लिए कुछ मांगने लगते है।
कबीर बैरी सबल है, एक जीव रिपु पांच ।
अपने अपने स्वाद को, बहुत नचावे नाच ॥
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि हे मनुष्य तू सावधान रह क्युंकि तू तो अकेला है परन्तु तेरे शत्रु पांच जो की ये तेरी पांच इन्द्रियां हैं, जो अपने लाभ के लिए तुझे भिन्न भिन्न प्रकार के प्रलोभन देंगी और तुझे यहाँ वहाँ भटकने पर मजबूर करेंगी । अतः तू इनका दास न बन अपितु इन्हें अपना दास बना ।
बहुत गई थोडी रही, व्याकुल मन मत होय ।
धीरज सब का मित्र है, करी कमाई न खोय ॥
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि जीवन की कठिनाइयों को देख कर व्याकुल नहीं होना चाहिए । अपने मन को नियंत्रित करते हुए उसे यही समझाने का प्रयत्न करना चाहिए कि जितनी कठिनाइयों का सामना किया अब बस उसका कुछ ही भाग शेष रह गया है अतः तनिक और धैर्य रखे । कहीं ऐसा न हो कि थोड़ी देर की जल्दबाज़ी में अब तक का परिश्रम व्यर्थ हो जाए ।
"सबकी सुने अपनी कहे, कह सुन एक जो होय ।
कहैं कबीर ता दास का, काज न बिगडे कोय ॥"
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति पहले सबके विचारों को शांतिपूर्वक सुनता है एवं तत्पश्चात अपने विचारों को व्यक्त करता है तथा समझदारी एवं सर्वसहमति से किसी चर्चा को निर्णायक अंत देता है, ऐसे व्यक्ति का कोई काम कभी विफल नहीं होता है ।
करनी बिन कथनी कथे, अज्ञानी दिन रात ।
कूकर सम भूकत फिरे, सुनी सुनाई बात ॥
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि अज्ञानी एवं मूर्ख व्यक्ति काम कम और बातें अधिक करते हैं और सुनी सुनाई बातों को ही रटते हुए कुत्तों कि तरह हर गली में जा कर भोंकते रहते हैं उनका अपना कोई तर्क नहीं होता है ।
रोष न रसना खोलिए, बरु खोलिअ तरवारि
सुनत मधुर परिनाम हित बोलिअ बचन बिचारी ।।
अर्थ: संत शिरोमणि तुलसीदास जी कहते हैं कि क्रोध में कभी भी जुबान नहीं खोलनी चाहिए; इसकी अपेक्षा तलवार निकलना अधिक उचित है । सोच समझकर ऐसे मीठे वचनों का प्रयोग करना चाहिए, जो हितकारी और प्रसन्नता देनेवाले हो ।
प्रेम बिना धीरज नहीं, बिरह बिना बैराग ।
सतगुरु बिना मिटते नहीं, मन मनसा के दाग ॥
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि मन में जिसके ह्रदय में प्रेम न हो वह धैर्य का अर्थ भी नहीं समझ सकता है और बिरह कि वेदना को केवल एक बैरागी ही समझ सकता है । जिस प्रकार प्रेम और धीरज एवं बिरह और बैराग का सम्बन्ध होता है उसी प्रकार गुरु और शिष्य के ह्रदय में सम्बन्ध होता है, बिना गुरु के शिष्य के मन से इच्छाओं को कोई और नहीं मिटा सकता है ।
एक शब्द सुख खानि है, एक शब्द दुःख रासि ।
एक शब्द बंधन कटे, एक शब्द गल फांसि ॥"
संत कबीर दास जी कहते हैं कि हमारे द्वारा कहे गए एक शब्द किसी के लिए सुखों का सागर बन सकता है तो वही एक शब्द ही किसी को दुःख देने के लिए भी पर्याप्त है । किसी के द्वारा कहे गए मात्र एक शब्द se ही किसी के सभी कष्ट एवं बंधन काट जाते हैं तो कभी एक ही शब्द किसी के लिए जीवन भर का कष्ट हो जाता है अतः व्यक्ति को हर शब्द को बोलने से पहले विचार कर लेना चाहिए ।
चिड़िया चोंच भरि ले गई, घट्यो न नदी को नीर ।
दान दिये धन ना घटे, कहि गये दास कबीर ॥
वक्ता ज्ञानी जगत में, पंडित कवि अनंत ।
सत्य पदारथ पारखी, बिरले कोई संत ॥
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि इस जगत में वक्ता, ज्ञानी, पंडित एवं कवि आपको बहुतेरे मिल सकते हैं परन्तु सत्य को परखने का हुनर रखने वाला सद्पुरुष कोई बिरला ही मिल सकता है।
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए॥
चिड़िया चोंच भर ले गई, नदी को घट्र्यो न नीर ।
दान दिए धन ना घटे, कह गए संत कबीर ।।
यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान
शीश दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान ।
कबीरा लहरें समुद्र की, मोती बिखरे आये ।
बगुला परख न जानही, हंसा चुन चुन खाए ।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जीवन हर क्षण हमे सफलता के अवसर प्रदान करता रहता है अंतर केवल उसको पहचानने का है, ठीक वैसे ही जैसे समुद्र कि लहरें अपने साथ मोतियों को किनारों तक बहा कर लाती हैं जिन्हें बगुला पहचानना नहीं जानता परन्तु हंस उन मोतियों को कंकडों के बीच से चुन चुन कर खाता है ।
धन रहे न योवन रहे, रहे गाँव न धाम ।
कहे कबीरा बस जस रहे, कर दे किसी का काम ।।
अर्थ: कबीर जी कहते हैं की धन, यौवन और समाज सब नश्वर हैं, अनश्वर केवल व्यक्ति के द्वारा किया गया भला काम ही उसके नाम को अमर रखता है इसलिए इंसान को दूसरों की भलाई के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
वृक्ष ये बोला पात से सुन पत्ते मेरी बात,
इस घर की यह रीती है इक आवत इक जात ।
अर्थ: सभी जीव इस संसार रुपी वृक्ष के पत्तों के सामान हैं जिस प्रकार वृक्ष पर पत्ते लगते और झड़ते रहते हैं ठीक उसी प्रकार इस संसार में जीवात्मा का आना और जाना भी लगा रहता है।
कबीरा धीरज के धरे हाथी मन भर खाए,
टूक टूक बेकार में स्वान घर घर जाये ।
अर्थ: संत कबीर जी कहते हैं की मनुष्य को धीरज रख कर ही काम किसी काम को करना चाहिए जल्दबाजी में किया गया काम त्रुटिपूर्ण ही होता है। जिस प्रकार हाथी जो की धीरे धीरे अपना भोजन खाता है जिससे वो पूर्ण तृप्ति के साथ भोजन को ग्रहण कर सकता है जबकि दूसरी ओर कुत्ता इधर उधर भागता फिरता है और हर घर में सिर्फ एक टुकड़ा ही पाता है ।
परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥
अर्थ: परनारी का साथ लहसुन खाने के जैसा है, भले ही कोई किसी कोने में छिपकर खाये, वह अपनी बास से प्रकट हो जाता है ।
कबीरा इस संसार का झूठा माया मोह ।
जिस घर जितनी बधाइयाँ उस घर उतना अंदोह ।।
अर्थ: कबीर जी कहते हैं की इस जगत में सांसारिक सुखों का जो मोह मनुष्य ने पाल रखा है वो सब सिर्फ एक मिथ्या है क्योंकि इश्वर ने सभी को सुख और दुःख सामान मात्र में दिए हैं, जहाँ जितना सुख होता है उतना ही दुःख भी होता है ।
तन को सब जोगी करे, मन को करे न कोई
सहजे सब कुछ पाइए जो मन जोगी होए।
अर्थ: व्यक्ति बाह्य आडम्बरों खुद को सभ्य अथवा महान दिखने के भिन्न-भिन्न प्रयत्न करता रहता है परन्तु सद्विचारों को अपने मन में नहीं उतारता है यदि वह अपने मन को भी पवित्र एवं विचारों को शुद्ध कर ले तो उसे सब कुछ अत्यंत ही सहजता से प्राप्त हो जायेगा ।
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग ।
चन्दन विष व्याप्त नहीं, लिपटे रहत भुजंग ।।
अर्थ : रहीम जी कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं, उनको बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती । जहरीले सांप चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते ।
रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार ।।
अर्थ : यदि आपका प्रिय सौ बार भी रूठे, तो भी रूठे हुए प्रिय को मनाना चाहिए, जिस प्रकार यदि मोतियों की माला टूट जाए तो उन मोतियों को बार बार धागे में पिरो लेना चाहिए ।
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग ।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग ।।
अर्थ : रहीम कहते हैं कि वे लोग धन्य हैं जिनका शरीर सदा सबका उपकार करता है । जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता है ।
फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर ।।
अर्थ: कविवर रहीम कहते हैं कि शतरंज के खेल में सीधी चाल चलते हुए प्यादा वजीर बन जाता है पर टेढ़ी चाल के कारण घोड़े को यह सम्मान नहीं मिलता अतः व्यक्ति को सत्य एवं सदाचार की राह पर अग्रसर रहना चाहिए ।
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।।
अर्थ: तुलसी दास जी कहते हैं कि जिस स्थान पर लोग आपके जाने से प्रसन्न न होवें और जहाँ लोगो कि आँखों में आपके लिए प्रेम अथवा स्नेह ना हो ऐसे स्थान पर भले ही धन की कितनी भी वर्षा ही क्यूँ ना हो रही हो आपको वहां नहीं जाना चाहिए ।
रहिमन वहां न जाइये, जहां कपट को हेत ।
हम तन ढारत ढेकुली, संचित अपनी खेत ।।
अर्थ: कविवर रहीम कहते हैं कि उस स्थान पर बिल्कुल न जायें जहां कपट होने की संभावना हो। कपटी आदमी हमारे शरीर के खून को पानी की तरह चूस कर अपना खेत जोतता है/अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।
अर्थ: प्रेम न तो किसी खेत अथवा क्यारी में उगता है और न ही यह किसी बाज़ार में बिकता है, यह तो वो खजाना है जो यदि किसी के मन को भा गया तो भले ही वह व्यक्ति राजा हो या कोई प्रजा, वो अपने प्राणों के मोल पर भी इसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहता है ।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ॥
अर्थ: संत कबीर जी कहते हैं कि हे मनुष्य तुझे एक युग बीत गया इस माला को फेरते हुए परन्तु फिर भी तेरे मन में व्याप्त इस दुविधा का हल तुझे नहीं मिला, हे मनुष्य तू इस हाथ की माला को फेक कर एक बार मन की माला का जाप कर तुझे सभी दुविधा का हल स्वतः ही प्राप्त हो जायेगा ।
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
जहां दया तहं धर्म है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां क्रोध तहं काल है, जहां क्षमा आप॥
खीरा सिर ते काटि के, मलिय लौंन लगाय.
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय.
अर्थ : खीरे का कडुवापन दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक लगा कर घिसा जाता है. रहीम कहते हैं कि कड़ुवे मुंह वाले के लिए – कटु वचन बोलने वाले के लिए यही सजा ठीक है.
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥