अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा की जब सारे धर्म ग्रंथ ,वेद पुराण , उपनिषद चिल्ला चिल्ला कर कह रहे है की आपकी इच्छा के बिना इस ब्रह्माण्ड में एक कण भी इधर से उधर नहीं हो सकता तो फिर मेरे कर्मो का केवल में ही क्यों अधिकारी हू आप भी उसके साक्षी हो ,जब सब हो ही आप की मर्जी से रहा है तो केवल अकेला में ही क्यों अपने कर्मो का फल भुगतूंगा
तब श्री कृष्ण ने कहा
अर्जुन कर्म तो मेरे भी सगे नहीं है ।
, इसलिए मनुष्य को कोई भी कर्म करने से पहले अपनी बुद्धि व विवेक का सहारा ले करउस कर्म के अच्छे बुरे का निर्णय करने के बाद ही कर्म करना चाहिए , हर पलसीढ़ी सांप के खेल की तरह पुण्य या पाप बड़ाने है या घटाने है ये कर्म का पासा फेकने से पहले ही निर्णय लेना होता है ,
जैसेजुआ घर में जब कोई जुयारी जुए को खेलने जाता है साथ में कुछ पूंजी लेकर जाता है फिर उसका कम होना या बड़ ना उसके दांव लगाने की क्षमता समझ कुशलता कोशल pr निर्भर krta hai,thik उसी प्रकार जब कोई मनुष्य धरती पर जन्म लेता है तो साथ में पाप va पुण्य कर्मो की संचित पूंजी ले kr aata है,sb kuch mere hath me होते हुए भी कर्म का अधिकार मेरे अधिकार में नही है , कर्म तो मेरे भी सगे nhi है